"साल 2020 में लॉकडाउन के दौरान, कुछ लोग 1.20 एकड़ ज़मीन की बाउंड्री बनाने के लिए आए थे," 30 वर्षीय फगुवा उरांव कहते हैं, वह एक खुली ज़मीन के चारों ओर खड़ी एक ईंट की दीवार की ओर इशारा करते हैं. हम खूंटी ज़िले के डुमारी गांव में हैं, जहां बड़े पैमाने पर उरांव आदिवासी समुदाय रहते हैं. "उन्होंने यह कहते हुए इसे मापना शुरू कर दिया कि यह ज़मीन किसी और की है, आपकी नहीं है." हमने इसका विरोध किया.

“इस घटना के लगभग 15 दिन बाद, हम गांव से 30 किलोमीटर दूर खूंटी में सब डिविज़नल मजिस्ट्रेट के पास गए. हर यात्रा पर हमें 200 रुपए से अधिक का ख़र्च आता है. हमें वहां एक वकील की मदद लेनी पड़ी. वह व्यक्ति हमसे 2,500 रुपए ले चुका है. लेकिन कुछ नहीं हुआ.

“इससे पहले, हम अपने ब्लॉक के जोनल कार्यालय गए थे. हम इसकी शिकायत करने पुलिस स्टेशन भी गए. हमें ज़मीन पर अपना दावा छोड़ने की धमकियां मिल रही थीं. कर्रा ब्लॉक के एक धुर दक्षिणपंथी संगठन के सदस्य, जो खूंटी के ज़िला अध्यक्ष भी हैं, ने हमें धमकी दी थी. लेकिन कोर्ट में कोई सुनवाई नहीं हुई. अब ये दीवार हमारी ज़मीन पर खड़ी है. और हम दो साल से इसी तरह दौड़-धूप कर रहे हैं."

"मेरे दादा लूसा उरांव ने 1930 में ज़मींदार बालचंद साहू से ज़मीन ख़रीदी थी. हम उसी ज़मीन पर खेती कर रहे हैं. हमारे पास इस भूखंड के लिए 1930 से 2015 तक की रसीद हैं. उसके बाद [2016 में] ऑनलाइन प्रणाली शुरू की गई थी और ऑनलाइन रिकॉर्ड में हमारी ज़मीन का टुकड़ा [पूर्व] ज़मींदार के वंशजों के नाम पर है, हमें कोई अंदाज़ा नहीं है कि यह कैसे हुआ.”

फगुवा उरांव ने केंद्र सरकार के डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड्स मॉडर्नाइजेशन प्रोग्राम (डीआईएलआरएमपी) के कारण अपनी ज़मीन खो दी है, जो देश में सभी भूमि रिकॉर्डों को डिजिटल बनाने और उनके लिए केंद्र द्वारा  प्रबंधित डेटाबेस बनाने वाला एक राष्ट्रव्यापी अभियान है. ऐसे सभी अभिलेखों को आधुनिक बनाने के उद्देश्य से राज्य सरकार ने जनवरी 2016 में एक भूमि बैंक पोर्टल का उद्घाटन किया, जिसमें भूमि के बारे में ज़िलेवार जानकारी सूचीबद्ध की गई. इसका उद्देश्य "भूमि/संपत्ति विवादों के दायरे को कम करना और भूमि रिकॉर्ड रखरखाव प्रणालियों में पारदर्शिता बढ़ाना था."

विडंबना यह है कि इसने फगुवा और उसके जैसे कई अन्य लोगों के लिए बिल्कुल विपरीत काम किया है.

हम ऑनलाइन ज़मीन की स्थिति का पता लगाने के लिए प्रज्ञा केंद्र [केंद्र सरकार की डिजिटल इंडिया योजना के तहत बनाई गई झारखंड में सामान्य सेवा केंद्रों के लिए एक वन-स्टॉप शॉप, जो ग्राम पंचायत में शुल्क के बदले में सार्वजनिक सेवाएं प्रदान करती है] गए. वहां के ऑनलाइन रिकॉर्ड के मुताबिक़, नागेंद्र सिंह ज़मीन के मौजूदा मालिक हैं. उनसे पहले संजय सिंह मालिक थे. उसने ज़मीन बिंदु देवी को बेच दी, जिसने बाद में इसे नागेंद्र सिंह को बेच दिया.

“ऐसा लगता है कि ज़मींदार के वंशज हमारी जानकारी के बिना एक ही ज़मीन को दो से तीन बार ख़रीदते और बेचते रहे.” लेकिन यह कैसे संभव है, जब हमारे पास 1930 से 2015 तक की ज़मीन की ऑफ़लाइन रसीदें हैं? हम अब तक 20,000 रुपए से अधिक ख़र्च कर चुके हैं और अभी भी इधर-उधर भाग रहे हैं. पैसे जुटाने के लिए हमें घर का अनाज बेचना पड़ा. "अब जब ज़मीन पर खड़ी दीवार देखता हूं, तो ऐसा लगता है जैसे हमने अपना सबकुछ खो दिया है. हम नहीं जानते कि इस संघर्ष में कौन हमारी मदद कर सकता है."

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फगुवा उरांव (बाएं) झारखंड के खूंटी ज़िले के उन तमाम आदिवासियों में से एक हैं जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों से भूमि रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण के कारण अपने पूर्वजों द्वारा ख़रीदी गई ज़मीन खो दी है. वह अपना पैसा और ऊर्जा अपनी ज़मीन के लिए लड़ने में ख़र्च कर रहे हैं, जबकि उनके पास 2015 तक की अपनी 1.20 एकड़ ज़मीन से जुड़े रसीदों (दाएं) की प्रतियां हैं

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राज्य में भूमि अधिकारों का एक लंबा और जटिल इतिहास रहा है. बड़ी आदिवासी आबादी वाले इस खनिज समृद्ध क्षेत्र में नीतियां और राजनीतिक दल इन अधिकारों के साथ बुरी तरह खिलवाड़ कर रहे हैं. भारत का 40 प्रतिशत खनिज भंडार झारखंड में है.

राष्ट्रीय जनगणना 2011 के अनुसार, राज्य में 29.76 प्रतिशत वन क्षेत्र है, जो 23,721 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है; अनुसूचित जनजाति (एसटी) के रूप में वर्गीकृत 32 आदिवासी समुदाय राज्य की आबादी का एक-चौथाई, लगभग 26 प्रतिशत हिस्सा हैं; 13 ज़िलों में पूरी तरह से उनकी मौजूदगी है और तीन ज़िले आंशिक रूप से पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों (एफ़एसए) के तहत कवर होते हैं.

राज्य में आदिवासी समुदाय आज़ादी के पहले से ही अपने संसाधन पर अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जो उनके जीवन जीने के पारंपरिक सामाजिक-सांस्कृतिक तरीक़ों से जटिल रूप से जुड़े हुए हैं. पचास वर्षों से भी अधिक समय तक उनके सामूहिक संघर्ष के परिणामस्वरूप ही अधिकारों का पहला रिकॉर्ड, 1833 में हुक़ूक़नामा सामने आया. यह भारतीय स्वतंत्रता से एक शताब्दी पहले आदिवासियों के सामुदायिक कृषि अधिकारों और स्थानीय स्वशासन की आधिकारिक मान्यता थी.

और एफ़एएस की संवैधानिक बहाली से बहुत पहले, 1908 के छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट (सीएनटी एक्ट) और संताल परगना टेनेंसी एक्ट (एसपीटी एक्ट) 1876 ने आदिवासी (एसटी) और मूलवासी (एससी, बीसी और अन्य) भूमिधारकों के अधिकार को मान्यता दी थी. ये सभी विशेष क्षेत्र हैं.

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फगुवा उरांव और उनका परिवार अपनी आजीविका के लिए अपने पूर्वजों द्वारा ज़मींदार से ख़रीदी गई ज़मीन पर निर्भर हैं. इसके अलावा, उनके पास 1.50 एकड़ भुईंहरी ज़मीन है जो उनके उरांव पूर्वजों की है.

एक ऐसे परिवार के वंशज, जिनके पूर्वजों ने जंगलों को साफ़ करके ज़मीन को धान के खेतों में बदल दिया और गांव स्थापित किए, सामूहिक रूप से ऐसी ज़मीन के मालिक हैं, जिसे उरांव क्षेत्रों में भुईंहरी और मुंडा आदिवासियों के क्षेत्रों में मुंडारी खुंटकट्टी के रूप में जाना जाता है.

फगुवा कहते हैं, ''हम तीन भाई हैं. हम तीनों के परिवार हैं. बड़े भाई और मंझले भाई दोनों के तीन-तीन बच्चे हैं और मेरे दो बच्चे हैं. परिवार के सदस्य खेतों और पहाड़ी ज़मीन पर खेती करते हैं. हम धान, बाजरा, और सब्ज़ियां उगाते हैं. हम इसका आधा हिस्सा खाते हैं और जब हमें पैसे की ज़रूरत होती है, तो आधा बेच देते हैं,'' वह आगे कहते हैं.

इलाक़े में खेती साल में एक बार होती है. बाक़ी समय उन्हें जीवित रहने के लिए कर्रा ब्लॉक या अपने गांव में और उसके आसपास मज़दूरी करनी पड़ती है.

डिजिटलीकरण और इसकी समस्याएं ऐसी पारिवारिक स्वामित्व वाली भूमि से कहीं आगे तक जाती हैं.

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खूंटी ज़िले के कोसंबी गांव में संयुक्त पड़हा समिति की बैठक में जुटे लोग. समिति आदिवासियों के बीच उनके भूमि अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करने की कोशिश कर रही है, उन्हें खतियान दिखा रही है - जो 1932 के भूमि सर्वेक्षण के आधार पर सामुदायिक और निजी भूमि स्वामित्व अधिकारों का रिकॉर्ड है

लगभग पांच किलोमीटर दूर एक दूसरे गांव, कोसंबी में, बंधु होरो अपनी सामूहिक भूमि की कहानी सुनाते हैं. वह कहते हैं, "जून 2022 में कुछ लोग आए और हमारी ज़मीन की घेराबंदी करने की कोशिश करने लगे. वे जेसीबी मशीन लेकर आए थे, तभी गांव के सभी लोग बाहर आ गए और उन्हें रोकने लगे."

उसी गांव की 76 वर्षीय फ्लोरा होरो भी कहती हैं, "गांव के लगभग 20-25 आदिवासी आए और खेतों में बैठ गए. लोगों ने खेतों की जुताई भी शुरू कर दी. ज़मीन ख़रीदने वाले पक्ष ने पुलिस को बुलाया. लेकिन गांव के लोग शाम तक बैठे रहे और बाद में, खेतों में सरगुजा [गुइज़ोटिया एबिसिनिका] बोया गया,” वह कहते हैं.

ग्राम प्रधान विकास होरो (36) विस्तार से बताते हैं, "कोसंबी गांव में 83 एकड़ ज़मीन है जिसे मझिहस के नाम से जाना जाता है. यह गांव की 'विशेषाधिकार प्राप्त' ज़मीन है, जिसे आदिवासी समुदाय ने ज़मींदार की ज़मीन के रूप में अलग कर दिया था. गांव के लोग इस ज़मीन पर सामूहिक रूप से खेती करते रहे हैं और फ़सल का एक हिस्सा ज़मींदार के परिवार को सलामी के रूप में देते रहे हैं.” राज्य में ज़मींदारी प्रथा समाप्त होने पर भी ग़ुलामी ख़त्म नहीं हुई. “आज भी,” वह कहते हैं, “गांवों में कई आदिवासी अपने अधिकारों को नहीं जानते हैं.”

किसान सेतेंग होरो (35), जिनका परिवार उनके तीन भाइयों की तरह अपने निर्वाह के लिए अपनी दस एकड़ संयुक्त स्वामित्व वाली ज़मीन पर निर्भर है, के पास बताने के लिए एक जैसी ही कहानी है. "शुरुआत में हमें यह नहीं पता था कि ज़मींदारी प्रथा के अंत के साथ, मझियस ज़मीन उन लोगों के पास वापस चली जाती है जो सामूहिक रूप से इन खेतों पर खेती कर रहे थे. और चूंकि हमें पता नहीं था, इसलिए हम खेती के बाद पूर्व ज़मींदार के वंशजों को कुछ अनाज दे देते थे. जब उन्होंने ऐसी ज़मीन को ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से बेचना शुरू किया, तभी हमने ख़ुद को संगठित किया और ज़मीन बचाने के लिए सामने आए,” वह कहते हैं.

वरिष्ठ अधिवक्ता रश्मी कात्यायन बताते हैं, "बिहार भूमि सुधार अधिनियम 1950-55 के बीच लागू किया गया था. ज़मीन में ज़मींदारों के सभी हित - बंजर भूमि को पट्टे पर देने का अधिकार, लगान और कर वसूलने का अधिकार, नई रैयतों को बसाने का अधिकार" बंजर ज़मीन पर, गांव के बाज़ारों और गांव के मेलों आदि से कर जमा करने का अधिकार तब सरकार के पास था, सिवाय उन ज़मीनों के जिन पर पूर्व ज़मींदारों द्वारा खेती की जा रही थी.

“पूर्व ज़मींदारों को ऐसी ज़मीन के साथ-साथ अपनी ‘विशेषाधिकार प्राप्त’ ज़मीन, जिसे मझिहस कहा जाता है, के लिए रिटर्न दाख़िल करना था. लेकिन उन्होंने ऐसी ज़मीन को अपना मान लिया और उस पर कभी रिटर्न दाख़िल नहीं किया. इतना ही नहीं, बल्कि ज़मींदारी प्रथा समाप्त होने के काफ़ी समय बाद तक भी वे ग्रामीणों से आधा-आधा हिस्सा लेते रहे. पिछले पांच वर्षों में डिजिटलीकरण के साथ ज़मीन के संघर्ष बढ़ गए हैं, ” 72 वर्षीय कात्यायन कहते हैं.

खूंटी ज़िले में पूर्व ज़मींदारों के वंशजों और आदिवासियों के बीच बढ़ते विवादों पर चर्चा करते हुए 45 वर्षीय अधिवक्ता अनुप मिंज कहते हैं, ''ज़मींदारों के वंशजों के पास न तो लगान की रसीद है और न ही ऐसी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा, लेकिन वे ऐसी ज़मीनें ऑनलाइन चिन्हित कर रहे हैं और उन्हें किसी न किसी को बेच रहे हैं. छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट, 1908 की अधिभोग अधिकार धारा के अनुसार, जो व्यक्ति 12 वर्षों से अधिक समय से ज़मीन पर खेती कर रहा है उसे अपने आप ही मझिहस ज़मीन पर अधिकार मिल जाता है. ऐसी ज़मीन पर खेती करने वाले आदिवासियों का अधिकार है.”

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कोसंबी गांव के लोग अपनी ज़मीन दिखाते हैं जिस पर वे अब सामूहिक रूप से खेती करते हैं. उन्होंने लंबे और सामूहिक संघर्ष के बाद इस ज़मीन को पूर्व ज़मींदारों के वंशजों से बचाया है

संयुक्त पड़हा समिति पिछले कुछ वर्षों में सक्रिय रही है, जो आदिवासी स्वशासन की पारंपरिक लोकतांत्रिक पड़हा व्यवस्था के तहत इन ज़मीनों पर खेती करने वाले आदिवासियों को संगठित कर रही है, जहां पड़हा में 12 से 22 गांवों तक के समूह शामिल हैं.

समिति के 45 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता अल्फ्रेड होरो कहते हैं, ''खूंटी ज़िले के कई इलाक़ों में यह संघर्ष चल रहा है. ज़मींदार के वंशज तोरपा ब्लॉक में 300 एकड़ ज़मीन पर दोबारा क़ब्ज़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. ज़िले के कर्रा प्रखंड के तियू गांव में 23 एकड़, पड़गांव गांव में 40 एकड़, कोसंबी गांव में 83 एकड़, मधुगामा गांव में 45 एकड़, मेहा गांव में 23 एकड़, छाता गांव में अब तक 90 एकड़ ज़मीन संयुक्त पड़हा समिति के पास है. क़रीब 700 एकड़ आदिवासी ज़मीनें बचाई गईं हैं," वे कहते हैं.

समिति आदिवासियों के बीच उनके भूमि अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए काम कर रही है, उन्हें खतियान दिखा रही है - जो 1932 के भूमि सर्वेक्षण के आधार पर सामुदायिक और निजी भूमि स्वामित्व अधिकारों का रिकॉर्ड है. इसमें किस ज़मीन पर किसका अधिकार है तथा ज़मीन की प्रकृति के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है. जब ग्रामीण खतियान देखते हैं, तो उन्हें पता चलता है कि जिस ज़मीन पर वे सामूहिक रूप से खेती कर रहे थे उसका मालिक उनके पूर्वज थे. यह पूर्व ज़मींदारों की ज़मीन नहीं है और ज़मींदारी प्रथा भी समाप्त हो गई है.

खूंटी के मेरले गांव की इपील होरो कहती हैं, ''डिजिटल इंडिया के ज़रिए लोग ज़मीन के बारे में सारी जानकारी ऑनलाइन देख सकते हैं और यही वजह है कि संघर्ष बढ़ गए हैं. मज़दूर दिवस, 1 मई, 2024 को कुछ लोग बॉउंड्री बनाने आए थे. उन्होंने दावा किया कि उन्होंने गांव के पास मझिहस ज़मीन ख़रीदी है, गांव के 60 पुरुष और महिलाएं एक साथ आए और उन्हें रोका.

“पूर्व ज़मींदारों के वंशज मझिहस भूमि को ऑनलाइन देख सकते हैं. वे अभी भी ऐसी ज़मीनों को अपना ‘विशेषाधिकार प्राप्त’ क़ब्ज़ा मानते हैं और उन्हें अनुचित तरीक़े से बेच रहे हैं. हम अपनी संयुक्त ताक़त से उनकी ज़मीन हड़पने का विरोध कर रहे हैं,'' वे कहते हैं. इस मुंडा गांव में कुल 36 एकड़ ज़मीन मझिहस ज़मीन है, जिस पर ग्रामीण पीढ़ियों से सामूहिक खेती करते आ रहे हैं.

भरोसी होरो (30) कहती हैं, ''गांव के लोग ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं. हमें नहीं पता कि इस देश में क्या नियम बनते और बदलते हैं. पढ़े-लिखे लोग बहुत सारी बातें जानते हैं. लेकिन उस ज्ञान से वे कम जानकारी वाले लोगों को लूट लेते हैं, उन्हें परेशान करते हैं, इसीलिए आदिवासी विरोध करते हैं."

न केवल सूचनाएं, बल्कि बहुप्रतीक्षित 'डिजिटल क्रांति' भी छिटपुट बिजली आपूर्ति और ख़राब इंटरनेट कनेक्टिविटी वाले क्षेत्रों में रहने वाले तमाम लाभार्थियों तक नहीं पहुंची है. उदाहरण के लिए, झारखंड में ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की पहुंच केवल 32 प्रतिशत देखी गई है. इसमें देश में पहले से मौजूद वर्ग, लिंग, जाति और आदिवासियों के विभाजन के कारण बढ़े डिजिटल विभाजन को भी जोड़ लें.

नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस 75वां दौर - जुलाई 2017-जून 2018) में कहा गया कि झारखंड के आदिवासी इलाक़ों के केवल 11.3 प्रतिशत घरों में इंटरनेट की सुविधा है और उनमें से ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 12 प्रतिशत पुरुष और 2 प्रतिशत महिलाएं हैं, जो इंटरनेट चलाना जानते हैं. ग्रामीणों को सेवाओं के लिए प्रज्ञा केंद्रों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिसके बारे पहले ही दस ज़िलों के सर्वेक्षण में चर्चा की जा चुकी है.

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गांव में आदिवासी अब सामूहिक रूप से अपनी ज़मीन के लिए लड़ रहे हैं, जब पूर्व ज़मींदारों के वंशज जेसीबी मशीनों के साथ उतर आए हैं. वे बैठते हैं, हल चलाते हैं और देर तक निगरानी करते हैं और अंततः सरगुजा बोते हैं

खूंटी ज़िले के कर्रा प्रखंड की अंचल अधिकारी (सीओ) वंदना भारती बोलती हुई कुछ संकोची लगती हैं. वह कहती हैं, ''पूर्व ज़मींदारों के वंशजों के पास ज़मीन के काग़ज़ात हैं, लेकिन यह देखना होता है कि ज़मीन पर क़ब्ज़ा किसका है. ज़मीन पर आदिवासियों का क़ब्ज़ा है और वे ही ज़मीन पर खेती करते रहे हैं. अब यह एक जटिल मामला है. हम आम तौर पर ऐसे मामलों को अदालत में ले जाते हैं. कभी-कभी पूर्व ज़मींदार के वंशज और लोग ख़ुद ही मामले को सुलझा लेते हैं."

साल 2023 में, झारखंड की स्थानीय निवास नीति पर प्रकाशित एक पेपर कहता है, “राष्ट्रीय भूमि रिकॉर्ड आधुनिकीकरण कार्यक्रम (एनएलआरएमपी), 2008 और डिजिटल इंडिया लैंड के तहत डिजिटल अधिकार अभिलेख (अधिकारों के रिकॉर्ड) को हाल ही में ऑनलाइन भूमि रिकॉर्ड प्रणाली में अपलोड किया गया है. अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम (डीआईएलआरएमपी), 2014 से यह भी पता चलता है कि प्रत्येक डिजिटल भूमि रिकॉर्ड राजस्व भूमि को निजी संपत्ति शासन में बदल रहा है, जो सामुदायिक भूमि कार्यकाल अधिकारों को दर्ज करने की पारंपरिक/खतियानी प्रणाली को नज़रअंदाज कर रहा है, जो सीएनटी एक्ट के तहत दिया गया है.”

शोधकर्ताओं ने खाता या प्लॉट नंबर, रकबा, और भूमि के मालिकों के बदले हुए नाम और जनजातियों/जातियों के लिए गलत प्रविष्टियों के साथ-साथ ज़मीन की धोखाधड़ी वाली बिक्री को स्वीकार किया है, जिसके कारण ग्रामीणों को ऑनलाइन आवेदन करने के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है, ताकि रिकॉर्ड ठीक किए जा सकें और अपडेट किए जाएं - लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ. और अब जब ज़मीन किसी और के नाम पर है, तो वे संबंधित करों का भुगतान करने में सक्षम नहीं हैं.

"इस मिशन के वास्तविक लाभार्थी कौन हैं?" एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक रमेश शर्मा पूछते हैं. “क्या भूमि रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है? निस्संदेह राज्य और अन्य शक्तिशाली लोग सबसे बड़े लाभार्थी हैं, जो इस मिशन के सकल परिणामों का आनंद ले रहे हैं, जैसे कि ज़मींदार, भू-माफ़िया और बिचौलिए ऐसा करते थे.'' उनका मानना है कि पारंपरिक भूमि और सीमांकन को समझने और पहचानने में स्थानीय प्रशासन को जानबूझकर अक्षम बनाया गया है, जो उन्हें अलोकतांत्रिक और शक्तिशालियों के पक्ष में खड़ा करता है.

बसंती देवी (35) आदिवासी समुदायों के जिस डर को व्यक्त करती हैं वह किसी की कल्पना से भी अधिक व्यापक है. वह कहती हैं, "यह गांव चारों तरफ़ से मझिहस ज़मीन से घिरा हुआ है. यह 45 परिवारों का गांव है. लोग शांति से रहते हैं. चूंकि हम एक-दूसरे के सहयोग से रहते हैं, इसलिए गांव इसी तरह चलता है. अब अगर चारों तरफ़ की ज़मीन अवैध तरीक़े से बेच दी जाए, बाउंड्री बना दी जाए, तो हमारे गाय, बैल, बकरियां कहां चरेंगे? गांव पूरी तरह से बंद हो जाएगा, हम यहां से दूसरी जगह पलायन करने को मजबूर हो जाएंगे.”

लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता रश्मी कथ्यायन से मिली गहन चर्चाओं और मदद के लिए बेहद आभारी हैं, जिन्होंने उनके लेखन को समृद्ध किया है.

Jacinta Kerketta

Jacinta Kerketta of the Oraon Adivasi community is an independent writer and reporter from rural Jharkhand. She is also a poet narrating the struggles of Adivasi communities and drawing attention to the injustices they face.

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Editor : Pratishtha Pandya

Pratishtha Pandya is a Senior Editor at PARI where she leads PARI's creative writing section. She is also a member of the PARIBhasha team and translates and edits stories in Gujarati. Pratishtha is a published poet working in Gujarati and English.

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