“इल्लल्लाह की शराब नज़र से पिला दिया, मैं इक गुनहगार था, सूफ़ी बना दिया.
सूरत में मेरे आ गई सूरत फ़क़ीर की, ये नज़र मेरे पीर की...ये नज़र मेरे पीर की... ”

कलाई पर घुंघरू बांधे, ढोलक को बच्चे की तरह गोद में रखकर बजाते हुए एक क़व्वाल पुणे शहर के क़रीब एक दरगाह पर गा रहे हैं.

वह माइक पर नहीं गा रहे, लेकिन उनकी बुलंद और साफ़ आवाज़ गुंबद की मीनारों को छू रही है. न गायकों की टोली उनके साथ है, न सामने सुननेवाले खड़े हैं, पर क़व्वाल अकेले गाए जा रहे हैं.

एक के बाद एक, क़व्वालियों का दौर चल रहा है. वह केवल ज़ुहर और मग़रिब की नमाज़ के दौरान रुकते हैं, क्योंकि उस वक़्त गाना-बजाना सही नहीं माना जाता. नमाज़ पूरी होती है, और वह रात क़रीब आठ बजे तक गाते रहते हैं.

“मैं अमजद हूं. अमजद मुराद गोंड. हम राजगोंड हैं. आदिवासी.” वह अपना परिचय देते हैं. नाम से मुसलमान और जन्म से आदिवासी, अमजद हमें बताते हैं: "क़व्वाली हमारा पेशा है!"

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अमजद गोंड, पुणे शहर के पास एक दरगाह पर क़व्वाली गाते हैं. वह केवल ज़ुहर और मग़रिब की नमाज़ के दौरान रुकते हैं, क्योंकि उस वक़्त गाना-बजाना सही नहीं माना जाता है. नमाज़ पूरी होने के बाद, वह फिर से गाना शुरू करते हैं और रात आठ बजे तक गाते रहते हैं

पान चबाते हुए वह कहते हैं, ''क़व्वाली पे कौन नहीं झूमता! कव्वाली ऐसा चीज़ है जिसे सब पसंद करते है.” पान उनके मुंह में घुलने लगा है, और वह क़व्वाली के अपने जुनून के बारे में बताने लगते हैं, “पब्लिक को ख़ुश करने का…बस्स!”

‘पांव में बेड़ी, हाथों में कड़ा रहने दो, उसको सरकार की चौखट पे पड़ा रहने दो...’ इसे सुनकर मुझे हिन्दी फ़िल्मों के एक लोकप्रिय गाने की याद आ जाती है.

दरगाह पर ज़ियारत के लिए आए लोगों को क़व्वाली के लिए बॉलीवुडिया गाने की धुन का इस्तेमाल करने से कोई परेशानी नहीं है और उनमें से कुछ अमजद की गायकी सुनकर कुछ पैसे भी देते हैं. कोई 10 रुपए देता है, तो कोई 20 रुपए. दरगाह की देखभाल करने वाले, चादर चढ़ाकर पीर से दुआ मांगने आए लोगों को तिलगुल (तिल और गुड़ की मिठाई) देते हैं. एक मुजावर बुरी नज़र से बचाने के लिए सवालियों (भक्तों) की पीठ व कंधों को मोर के पंखों से झाड़ता है. पीर को चढ़ावा दिया जाता है, और क़व्वाल को भी थोड़े पैसे दिए जाते हैं.

अमजद बताते हैं, “इस दरगाह पे सेठ लोग [अमीर] ज़्यादा आते हैं.” मक़बरे की ओर जाने वाले रास्ते पर कई छोटी दुकानें हैं, जो चादरें व चुनरी बेचती हैं. प्रार्थना की जगहें लोगों को रोज़गार भी देती हैं, कईयों का पेट पालती हैं.

हज़रत पीर क़मर अली दरवेश किसी के साथ भेदभाव नहीं करते. दरगाह की सीढ़ियों पर, एक फ़क़ीर भीख मांगते मिल जाते हैं और अक्षमताओं से जूझते कुछ लोग भी सवालियों से दया दिखाने और पैसे देने की फ़रियाद करते मिलते हैं. नौ गज की साड़ी में लिपटी एक बुज़ुर्ग हिंदू महिला यहां अक्सर आती हैं और हज़रत क़मर अली दरवेश के असर में ख़ुश नज़र आती हैं. अक्षमताओं के शिकार लोग, यतीम, और क़व्वाल - हर कोई यहां उनकी दया पर है.

अमजद हाथ नहीं फैलाते. वह कलाकार हैं. सुबह 11 बजे वह मज़ार के सामने की कोई जगह तलाशते हैं और अपना 'मंच' तैयार करते हैं. धीरे-धीरे सवाली आने लगते हैं. दोपहर तक, संगमरमर और ग्रेनाइट का सफ़ेद फ़र्श गर्म हो जाता है. जलते पत्थर से अपने पांव बचाने के लिए लोग उछलते-कूदते निकलते हैं. हिन्दू सवालियों की संख्या मुसलमानों से ज़्यादा नज़र आती है.

औरतों को मज़ार के क़रीब जाने की इजाज़त नहीं है. इसलिए, मुस्लिम महिलाओं सहित तमाम लोग बरामदे में बैठते हैं और आंखें बंद करके क़ुरान की आयतें पढ़ते दिखते हैं. नज़दीक के गांव की एक हिंदू महिला बगल में बैठी है, जिसे किसी आत्मा ने पकड़ लिया है. "पीराचं वारं [पीर का साया]," लोग कहते हैं.

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बाएं: पुणे शहर के पास स्थित खेड़ शिवापुर में पीर क़मर अली दरवेश की दरगाह काफ़ी मशहूर है, जहां ग़रीब और अमीर समान रूप से आते हैं. दाएं: औरतों को मज़ार के पास जाने की इजाज़त नहीं है, इसलिए उनमें से ज़्यादातर औरतें बाहर खड़े होकर प्रार्थना करती हैं

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अमजद गोंड यहां हर महीने आते हैं. वह कहते हैं, 'ऊपरवाला भूखा नहीं सुलाता!'

सवालियों का मानना ​​है कि चराग़ का तेल सांप के ज़हर या बिच्छू के डंक को बेअसर कर देता है. इस मान्यता की जड़ें उस दौर तक जाती हैं, जब इस तरह के ज़हर का कोई इलाज नहीं हुआ करता था. अब हमारे पास क्लिनिक और इलाज मौजूद है, लेकिन बहुत से लोग उसका ख़र्चा नहीं उठा पाते. यहां कई तरह की परेशानियों से परेशान लोग भी आते हैं - निःसंतान औरतें, सास या पतियों की सताई हुई औरतें. कुछ ऐसे भी लोग हैं जो अपने लापता अपनों की तलाश में हैं.

दरगाह में मानसिक बीमारियों के मरीज़ भी पीर से दुआ मांगने आते हैं. वे उनसे दुआ मांगते हैं और अमजद की क़व्वाली उनकी प्रार्थनाओं को लय में बांधती है और धुन में ढाल देती है. किसी दुआ की तरह ही वह हमें दूसरी दुनिया में ले जाती है.

क्या वह कभी गाना बंद करते हैं? क्या उनका गला थकता है? उनके फेफड़े तो हारमोनियम जैसे मालूम पड़ते हैं. अमजद दो गानों के बीच में थोड़ा रुकते हैं और मैं इंटरव्यू के लिए उनका समय मांगने उनके पास जाता हूं. “मेरेकू कुछ देना पडेंगा क्या?'' अमजद उंगलियों से पैसे का इशारा करते हुए पूछते हैं. मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है. मैं एक बार फिर उनसे समय मांगता हूं और उनका गाना सुनने लगता हूं.

क़व्वाली रूहानी विधा है - रूह को छू जाती है. सूफ़ी परंपरा ने इसे परमात्मा से जोड़ा था. रियलिटी शोज़ में हम जो सुनते हैं वह क़व्वाली का दूसरा रूप है - रूमानी या रोमांटिक. और फिर इसका तीसरा रूप आता है. हम इसे ख़ानाबदोशी कह सकते हैं. जो गुज़ारे की तलाश में भटकते अमजद जैसे लोगों तक पहुंच गई.

अमजद की आवाज़ हवा में तैरती है.

“ताजदार-ए-हरम, हो निगाह-ए-करम
हम ग़रीबों के दिन भी संवर जाएंगे…
आपके दर से खाली अगर जाएंगे”

जब अमजद ने इसे गाया, तो आख़िरी लाइन के मायने और भी गहरे नज़र आए. मैं अब उनसे बात करने के लिए और भी उत्सुक हो गया था. लेकिन मैं उन्हें परेशान नहीं करना चाहता था, इसलिए मैंने उनसे अगले दिन का वक़्त लिया और फिर से दरगाह आया. अगले रोज़ तक मैं पीर क़मर अली दरवेश का इतिहास खंगालने में ही लगा रहा.

अमजद क़व्वाल को सुनें

अमजद गोंड मज़ार के सामने की कोई जगह तलाशते हैं और अपना 'मंच' तैयार करते हैं. धीरे-धीरे सवाली आने लगते हैं. हिन्दू सवालियों की संख्या मुसलमानों से ज़्यादा नज़र आती है

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तो कहानी कुछ यूं है कि हज़रत क़मर अली, सिंहगड किले की तलहटी में स्थित पुणे शहर से लगभग 25 किलोमीटर दूर, एक छोटे से गांव खेड़ शिवापुर आए थे. एक शैतान से परेशान गांव के लोग हज़रत क़मर अली के पास गए और उनसे मदद मांगी. तब पीर ने शैतान को एक पत्थर में क़ैद कर लिया और उसे लानत देते हुए कहा: “ता क़यामत, मेरे नाम से लोग तुझे उठा उठा के पटकते रहेंगे, तू लोगों को परेशान किया करता था, अब जो सवाली मेरे दरबार मे आएंगे वो तुझे मेरे नाम से पटकेंगे.”

मक़बरे के सामने रखे पत्थर का वज़न 90 किलो से ज़्यादा है और क़रीब 11 लोगों का समूह इसे सिर्फ़ एक उंगली से उठा सकता है. वे ऊंची आवाज़ में 'या क़मर अली दरवेश' कहते हैं और पूरी ताक़त से पत्थर को नीचे पटकते हैं.

दरगाहें कई गांवों में हैं, लेकिन बहुत कम गांवों में इतनी भीड़ होती है जितनी यहां खेड़ शिवापुर में है. इस भारी-भरकम पत्थर की वजह से काफ़ी लोग यहां खींचे चले आते हैं; अमजद जैसों को भीड़ के कारण थोड़ा ज़्यादा कमाने का मौक़ा मिल जाता है. सवालियों का यह भी मानना ​​है कि औलिया बेऔलादों को औलाद देते हैं. अमजद मुझसे कहते हैं, "हम जड़ी-बूटी भी देते हैं और बेऔलादों का इलाज करते हैं."

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पीर क़मर अली दरवेश की दरगाह में रखे क़रीब 90 किलो के एक पत्थर को पुरुषों का एक समूह उठाता है और फ़र्श पर पटक देता है. कई दरगाहों में यह रस्म निभाई जाती है

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उसी परिसर में एक मस्जिद है और बगल में एक वज़ूखाना है. अमजद वहां जाते हैं, ख़ुद को अच्छी तरह साफ़ करते हैं, अपने बालों को बांधते हैं, केसरिया टोपी पहनते हैं और बातचीत शुरू होती है. "मैं एक दो महीने में से आठ-दस दिन यहीं रहता हूं." बचपन में वह अपने पिता के साथ यहां आया करते थे. “मेरी उमर दस-पद्रह रही होगी, जब अब्बा मेरेकू लेके यहां आए थे. अब मेरी उमर हो गई तीस के आगे, अब मैं कभी-कभी मेरे बेटे को यहां लेके आता,'' वह कहते हैं.

दरवेशी समुदाय के कुछ लोग दरगाह के तहखाने में बिछी चटाई पर सो रहे हैं. अमजद ने भी अपना बैग एक दीवार के पास रखा हुआ था. वह चटाई निकालते हैं और फ़र्श पर बिछा देते हैं. उन्होंने मुझे बताया कि उनका घर जलगांव ज़िले के पाचोरा की गोंड बस्ती में है.

अमजद ख़ुद को हिंदू या मुसलमान नहीं बताते. मैंने उनसे परिवार के बारे में पूछता हूं. “अब्बा है, दो मां हैं. हम चार भाई हैं, मेरे बाद शाहरुख़, उसके बाद सेठ, फिर चार नंबर का बाबर. पांच बहनों के बाद मेरा जनम हुआं.” मैं उनके मुस्लिम नामों के बारे में पूछता हूं. वह जवाब देते हैं, “हमारे गोंड लोगों में हिंदू और मुसलमानों के भी नाम रखते. हमारा धरम कोई नहीं. हमारे धरम मे जात-पात नहीं मानते. हमारा कुछ अल्लग ही धरम है. राजगोंड बोलते हमको.”

सार्वजनिक तौर पर मौजूद जानकारी से पता चलता है कि लगभग 300 साल पहले, राजगोंड आदिवासियों के एक समूह ने इस्लाम अपना लिया था. वे मुसलमान/मुस्लिम गोंड कहे जाते थे. महाराष्ट्र के नागपुर और जलगांव ज़िलों में मुस्लिम गोंड समुदाय के कुछ लोग मिल जाते हैं. लेकिन अमजद इस इतिहास से अनजान हैं.

“हमारे में शादी मुसलमान से नहीं, गोंड में ही होती है. मेरी बीवी चांदनी गोंड है,” वह आगे कहते हैं. “मेरी एक बेटी का नाम लाजो, एक का नाम आलिया, और एक का नाम आलिमा है. ये सब गोंड ही हुए ना?” अमजद नहीं मानते कि नाम से किसी के धर्म की पहचान की जा सकती है. वह मुझे अपनी बहनों के बारे में बताते हैं. “मेरी सबसे बड़ी बहन है निशोरी. उसके बाद रेशमा, फिर सौसाल, उसके बाद डिडोली और सबसे छोटी का नाम है मैरी. अभी आप देखो मेरे बहनो के नाम गोंड हैं. लेकिन सबसे छोटी का नाम किरिश्चन में आता है...हमारे में ऐसा कुछ नही, जो नाम अच्छा लगता वो रख देते...” निशोरी 45 साल की हैं और सबसे छोटी बहन मैरी तीस साल की हैं. इन सभी की शादी गोंड पुरुषों से हुई है. उनमें से कोई भी कभी स्कूल नहीं गया.

अमजद की पत्नी चांदनी पढ़-लिख नहीं सकतीं. जब उनसे उनकी बेटियों की पढ़ाई के बारे में पूछा गया, तो वह कहती हैं, ''मेरी बच्चियां अभी तो सरकारी स्कूल में जाती हैं, लेकिन हम लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाते नहीं.”

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अमजद गोंड, महाराष्ट्र के पाचोरा के रहने वाले हैं. नाम से मुसलमान और जन्म से राजगोंड आदिवासी, अमजद धार्मिक फ़िरकों में यक़ीन नहीं करते हैं

"मेरे एक बेटे का नाम नवाज़, दूसरे का ग़रीब है!" ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती को ग़रीबों का मसीहा, यानी 'ग़रीब नवाज़' कहा जाता है. अमजद ने इन पर ही अपने बेटों का नाम रखा है. “नवाज़ तो अभी एक साल का भी नहीं हुआ. लेकिन ग़रीब को मैं पढ़ाऊंगा. उसको मेरे जैसा भटकने नही दूंगा.” ग़रीब आठ साल का है और कक्षा 3 में पढ़ता है. लेकिन अपने क़व्वाल बाप के साथ घूमता रहता है.

उनके परिवार के सभी मर्दों ने क़व्वाली को ही अपना पेशा बनाया है.

“हमारे गोंड लोग ऐसे हैं न, मट्टी भी उठाके बेच देते हैं. हम लोग कान का मैल निकालने का भी काम करते. खजूर भी बेचते हैं. घर से निकल गए, तो हज़ार-पांच सौ कमाकेच आते.'' अमजद कहते हैं. लेकिन उनकी शिकायत है कि “हमारे लोग पैसा उड़ा देते हैं. जमा नहीं करते. हमारा एक काम है न एक धंधा. हमारे में बिल्कुल भी किसी को नौकरी नहीं है.”

आय या व्यवसाय में स्थिरता की कमी को देखते हुए, अमजद के पिता ने क़व्वाली की ओर रुख़ किया. “अब्बा, मेरे दादा की तरह गांव-गांव घूमते थे. कभी जड़ी-बूटी, कभी खजूर बेचते थे. लेकिन अब्बा को गाने-बजाने का शौक़ लगा. फिर वो क़व्वाली की लेन मे घुस गए. मैं बचपन से अब्बा के पीछे-पीछे जाता था, क़व्वाली के प्रोग्राम मे बैठ-बैठ के अब्बा गाने लगे. उनको देखकर मैं भी सीख गया.”

“तो आप स्कूल नहीं गए?” मैं पूछता हूं.

अमजद चूने की पुड़िया निकालते हैं, उंगली के पोर पर उसे रखते हैं, और अपनी जीभ से चाटते हुए कहते हैं, "मै दूसरी-तीसरी तक गया स्कूल. फिर गया ही नहीं. लेकिन मैं पढ़-लिख सकता. इंग्लिश भी आता मेरेकू. मैं पढ़ा रहता, तो भोत आगे जाता. लेकिन पढ़ा नहीं. उसके वजह से पीछे है हम.” अमजद के भाइयों के साथ भी यही हुआ. वे सभी पढ़ना-लिखना सीखने के लिए ही स्कूल में दाख़िल हुए थे. बस. फिर काम ने उन्हें पढ़ाई से दूर कर दिया.

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वह माइक पर या गायकों की टोली के साथ नहीं गा रहे, लेकिन उनकी बुलंद व साफ़ आवाज़ गुंबद की मीनारों को छू रही है

“हमारे गांव में पचास घर गोंड के हैं. बाक़ी हिंदू, मुसलमान, ‘जय भीम’...सब हैं, ”अमजद कहते हैं. “सबमें पढ़े-लिक्खे मिलेंगे. हमारेमेच कोई नहीं है. सिर्फ़ मेरा एक भांजा पढ़ा है. उसका नाम शिवा है.” शिवा ने 15 या 16 साल की उम्र तक पढ़ाई की और फ़ौज में शामिल होना चाहता था, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. अब वह पुलिस में भर्ती होने की कोशिश कर रहा है. अमजद के परिवार का एक युवा करियर व पढ़ाई के बारे में सोच रहा है.

अमजद का भी अपना एक करियर है. “हमारी पार्टी है. केजीएन क़व्वाली पार्टी.” केजीएन का मतलब है ख़्वाजा ग़रीब नवाज़. इसकी शुरुआत उन्होंने अपने भाइयों के साथ मिलकर की है. उन्हें शादियों और अन्य आयोजनों में परफ़ॉर्म करने का मौक़ा मिलता है. "आप कितना कमाते हैं?" मैं पूछता हूं. जिसका प्रोग्राम रहेगा उसके हिसाब से पांच-दस हज़ार मिलते हैं. सुननेवाले भी पैसा छोड़ते हैं. सब मिलाकर पंद्रह-बीस हज़ार की कमाई हो जाती है, एक प्रोग्राम में.” यह पैसा सभी सदस्यों के बीच बंट जाता है और हर किसी को 2,000-3,000 रुपए से ज़्यादा नहीं मिलता. शादी का सीज़न ख़त्म होने के बाद, कोई कार्यक्रम नहीं होता और फिर अमजद पुणे आ जाते हैं.

यहां खेड़ शिवापुर में हज़रत क़मर अली दरवेश की दरगाह पर वह हमेशा कुछ पैसे कमा लेते हैं. वह रात में तहखाने में सो जाते हैं. “ऊपरवाला भूखा नहीं सुलाता!" बहुत से लोग अपनी दुआ क़बूल होने पर दावत देते हैं या खाना खिलाते हैं. अमजद एक सप्ताह के लिए यहां रहते हैं, क़व्वाली गाते हैं, और जो कुछ भी कमाते हैं उसके साथ घर लौट जाते हैं. यही उनकी दिनचर्या है. जब अमजद से यहां होने वाली कमाई के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने बताया कि 10,000 से 20,000 के बीच कमा लेते हैं. “लेकिन ज़्यादा की भूख अच्छी नहीं. ज़्यादा पैसा रखेंगे कहांॽ चोरी हो गया तोॽ इसलिए जित्ता भी मिलता है, समेटकर चले जाते है.”

“इतने में गुज़ारा हो जाता हैॽ” मैं पूछता हूं. “हां, चल जाता है! फिर गांव जाकर भी काम-धंधा करते हैं,” वह कहते हैं. मैं सोचता हूं वह आख़िर क्या करते होंगे गांव में, क्योंकि उनके पास ज़मीन या कोई अन्य संपत्ति नहीं है.

अमजद मेरी जिज्ञासा को शांत करते हैं. “रेडियम का काम. मैं आरटीओ [क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय] जाता हूं और गाड़ियों के नाम और नंबर प्लेट पेंट करता हूं,” अमजद बताते हैं. “क़व्वाली प्रोग्राम तो हमेशा नहीं मिलता, तो हमने झोला उठाया, रेडियम ख़रीदा, फिरते-फिरते कोई गाड़ी मिला, तो उसको दुल्हन जैसा सजा दिया.” यह उनका साइड बिज़नेस है. इस कला में सड़क पर काम करना होता है और कुछ रुपए मिल जाते हैं.

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जब अमजद गोंड छोटे थे, तो अपने संगीतकार पिता के साथ घूमते रहते थे, और धीरे-धीरे उनका स्कूल छूट गया

आजीविका के विकल्प कम होने और कुछ चुनिंदा लोगों द्वारा ही कला की सराहना किए जाने के कारण, अमजद के समुदाय के पास प्रेरणा के नाम पर कुछ ख़ास नहीं है. लेकिन हालात बदलते ज़रूर हैं. भारतीय लोकतंत्र ने उनके जीवन में उम्मीद की लौ जलाई है. “मेरे पिता सरपंच [ग्राम प्रधान] हैं,” वह कहते हैं. उन्होंने गांव के लिए कई अच्छे काम किए हैं. पहले चारों तरफ़ कीचड़ होता था, लेकिन उन्होंने सड़क बना दी.”

स्थानीय स्तर पर आदिवासियों को मिले आरक्षण ने इसे संभव बनाया है. हालांकि, अमजद अपने लोगों से ख़फ़ा भी नज़र आते हैं. “सरपंच के आगे कोई जाता है क्याॽ हमारे लोग सुनतेच नहीं. हाथ में पैसा आया नहीं कि मुर्गी-मछली लाते. सब पैसा उड़ा डालते. सिर्फ़ मौज करते. आगे की कोई नहीं सोचता.”

"आप वोट किसे देते हैं?" मैं पूछता हूं, यह भली-भांति जानते हुए भी कि वोटिंग निजी चीज़ है. “पहले पंजा को करते थे. अभी तो बीजेपी ही चल रहा है. जातवाले जो फ़ैसला करते हैं उसको ही वोट करते. जो चल रहा है, वईच चल रहा है! हमको पोलिटिक्स से मतलब नही,'' वह टालते हुए कहते हैं.

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दरगाहें कई गांवों में हैं, लेकिन खेड़ शिवापुर जितनी भीड़ चंद गांवों में ही होती है. इससे अमजद जैसे संगीतकारों को कमाई का अच्छा मौक़ा मिल जाता है

"आप शराब पीते हो?" मैं पूछता हूं और वह तुरंत इंकार कर देते हैं. “नहीं, नहीं...बीड़ी नहीं, शराब नहीं. हमारे भाई बीड़ी पीते, पुड़िया खाते, लेकिन मैं नहीं. कोई शौक़ नही गंदा.” मैं उनसे जानना चाहता हूं कि इन आदतों में ग़लत क्या है.

“हम भोत अल्लग लेन में हैं. आदमी शराब पीके गाने बैठा, तो उसका बेइज़्ज़ती होता नाॽ तो कायको वैसा काम करने काॽ तो बचपन से आपुन शौक़ ही नहीं करे…,” अमजद कहते हैं.

आपको कौनसी क़व्वाली पसंद हैॽ संस्कृत में जो कव्वाली रहती ना, वो मुझको भोत अच्छी लगती. गाने में भी अच्छा लगता, सुनने में भी अच्छा लगता.” संस्कृत कव्वालीॽ “असलम साबरी ने गाई है ना ‘किरपा करो महाराज’, कितना मीठा लगता, जो गीत दिल को छू लेता है वही संस्कृत होता है, क़व्वाली भगवान के लिए गाओ या नबी के लिए, दिल को छू जाए बस्स!” वह समझाते हैं.

अमजद के लिए, हिंदू भगवान की शान में गाई क़व्वाली 'संस्कृत' है. हम ही हैं जो लिपियों और भाषाओं को लेकर लड़ते हैं.

दोपहर होते-होते भीड़ बढ़ने लगती है. पुरुषों का एक समूह मज़ार के सामने इकट्ठा होता है. कुछ लोग टोपी पहनते हैं और कुछ अपने सिर को रुमाल से ढकते हैं. 'या...क़मर अली दरवेश...' का ज़ोरदार नारा गूंजता है और वे सभी मिलकर भारी पत्थर को अपनी उंगलियों से उठाते हैं, और पूरी ताक़त से उसे नीचे पटक देते हैं.

दूसरी तरफ़, अमजद मुराद गोंड देवताओं और पैगंबरों के लिए ‘क़ौल’ गाना जारी रखते हैं.

अनुवाद: देवेश

Prashant Khunte

Prashant Khunte is an independent journalist, author and activist reporting on the lives of the marginalised communities. He is also a farmer.

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Editor : Medha Kale

Medha Kale is based in Pune and has worked in the field of women and health. She is the Marathi Translations Editor at the People’s Archive of Rural India.

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